जयपुर/ नई दिल्ली । राजस्थान के आदिवासी बहुल दक्षिणांचल में बांसवाड़ा एक मात्र ऐसा जिला है जिसके किसी भी कोने से रेल नहीं गुजरती। आज़ादी के सात दशक गुज़र जाने के बाद भी यहाँ के वाशिंदे रेल की सिटी की आवाज़ सुनने को तरस गए है।
ऐसा नहीं है कि इस अंचल में रेल लाने के प्रयास नहीं हुए । प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिवंगत हरिदेव जोशी का तो हमेशा यह सपना रहा कि उनके गृह ज़िले में भी रेल आयें।वे बताते थे कि यदि तत्कालीन रेल मन्त्री ललित नारायण मिश्र का एक हादसे में निधन नहीं होता तो बाँसवाडा को यह सौगात बहुत पहले ही मिल जाती । हादसे के दूसरे दिन ही वे बाँसवाडा की रेल सम्बन्धी फ़ाइल पर साइन करने वाले थे। लेकिन दुर्भाग्य से वे ऐसा कर पाने को वे बचे ही नहीं।
बाँसवाडा को रेल लाईन से जोड़ने का मुद्दा क़रीबन हर चुनाव में बना रहा। बीजेपी ने पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से तो समाजवादियों ने तत्कालीन प्रधानमंत्री वी पी सिंह से सार्वजनिक सभाओं में इसकी घोषणायें भी करवाई। कांग्रेस तो शुरू से ही इस माँग के पीछे पड़ी रही।
आख़िर राज्य के वर्तमान मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के दूसरे मुख्यमंत्रित्व कार्यकाल में इस दिशा में गम्भीर प्रयास शुरू हुए और वर्ष 2010-11 के रेल बजट में डूंगरपुर-बांसवाड़ा-रतलाम रेल परियोजना की घोषणा हुई । केंद्र व राज्य सरकार के साझे में बनने वाली यह देश की पहली रेल परियोजना थी। राजस्थान सरकार ने इसके लिए 1325 करोड़ रु.की अपने हिस्से की राशि भी स्वीकृत कर युपीए अध्यक्ष सोनिया गाँधी के हाथों 3 जून, 2011 को डूंगरपुर मे परियोजना का शिलान्यास करवाया और बांसवाडा में आयोजित विशाल आमसभा में इसे समय पर पूरा करवाने का उद्घोष किया । साथ ही केन्द्र सरकार को भूमि अवाप्ति सहित अन्य खर्चे भी राज्य सरकार द्वारा ही वहन करने का विश्वास दिलवाया। इस महत्वकांक्षी परियोजना को 2016 तक पूरा होना था, लेकिन मुख्यमंत्री गहलोत का यह कार्यकाल समाप्त होने के बाद प्रदेश में सत्ता पर क़ाबिज़ हुई वसुन्धरा राजे की सरकार ने केन्द्र को राज्य की हिस्सेदारी के रूप में परियोजना की आधी राशी देने पर असहमति जता दी और अन्य सभी खर्चे भी केन्द्र सरकार द्वारा ही वहन करने का आग्रह किया। वसुन्धरा राजे का कहना था कि रेल केन्द्र का विषय है और राजस्थान जैसे भोगोलिक दृष्टि से पिछड़े प्रदेश के आदिवासी अंचल के लिए राज्य सरकार पर यह आर्थिक भार डालना उचित नहीं हैं। इसलिए केन्द्र सरकार को ही यह खर्चा वहन करना चाहिये। लेकिन केन्द्र सरकार की मोदी सरकार के रेल मन्त्री सुरेश प्रभु ने यह बात नहीं मानी और राज्य सरकार को अपने वायदे के अनुरूप आधी हिस्सा राशी देने को कहा।
केन्द्र और राज्य सरकार की इस लड़ाई के चलते परियोजना की गति पहले मंद हुई और कालान्तर में फिर ठप ही हो गई। उत्तर पश्चिम रेलवे और सरकार की ओर से जमीनों के मुआवजे की राशि का बजट जारी नहीं होने और इससे इसका काम आगे नहीं बढ़ पाने के कारण बांसवाड़ा, डूंगरपुर और रतलाम जिलों में उप मुख्य अभियंता (निर्माण) कार्यालय भी बंद कर दिए गए । इस प्रकार इस आदिवासी अंचल के निवासियों का एक बार फिर से रेल की छूक छूक सुनने का सपना चकनाचूर होकर अधर में ही अटक कर रह गया है ।
अब दोबारा सत्ता में लौट तीसरी बार राजस्थान के मुख्यमंत्री बने अशोक गहलोत ने भी केन्द्र की मोदी सरकार पर राजस्थान के साथ राजनीतिक भेदभाव का आरोप लगाते हुए इस रेल परियोजना का सम्पूर्ण खर्चा केन्द्र सरकार द्वारा ही वहन करने की वसुन्धरा राजे वाली ही माँग रख दी है लेकिन मोदी की वर्तमान सरकार ने एक बार फिर से अपने बजट में इसे लेकर कोई खुलासा तो दूर इसका ज़िक्र तक नहीं किया है। केन्द्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन ने अपने बजट भाषण में इस विषय पर चुप्पी ही साध ली।
सत्ता और प्रतिपक्ष के सांसद भी संसद में इस मुद्दे की लेकर बेबस ही दिख रहे हैं। प्रदेश के वर्तमान एवं पूर्व सांसद अनेक बार यह मुद्दा उठाने के बाद हताश दिख रहे है।
सांसद कनकमल कटारा ने लोकसभा में फिर से उठाया डूंगरपुर- बांसवाड़ा-रतलाम रेल परियोजना का मामला
सांसद कनकमल कटारा ने बीते कई वर्षों से अटकी डूंगरपुर-रतलाम वाया बांसवाड़ा रेल परियोजना का मुद्दा हाल ही लोकसभा में एक बार फिर से उठाया ।
उन्होंने डूंगरपुर-रतलाम वाया बांसवाड़ा रेल परियोजना का निर्माण कार्य शीघ्र शुरू करने की मांग उठाई ।वे पहले भी कई बार इस मामले को केन्द्र सरकार के समक्ष उठा चुके है। लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला की पहल पर पिछले दिनों केन्द्रीय रेल मन्त्री पीयूष गोयल के साथ हुई प्रदेश के सांसदों की बैठक में भी वे इसे उठा चुके है।
बांसवाड़ा एक ऐसा जिला है जिस के किसी भी कोने से रेल नहीं गुजरती